12 घंटे पहले
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समय और मौसम की कोई गारंटी नहीं है। समय भी अनिश्चता से घिरा हुआ है और मौसम भी। हिंदुस्तान के हर कोने में मौसम तेजी से बदल रहा है। पहले इसका समय तय किया गया था। इतने दिन ठंडा विवरण, इतने दिन बारिश और इतने ही दिन गर्मी। लेकिन अब तक इंसान ने अपनी नीतियाँ छोड़ दी हैं, इसलिए पृथ्वी, आकाश, जल और इसके बहाने मौसम भी अपना स्वभाव बदलने को विवश है।
हाल की ही बात है। ठण्डा जाने को है। गर्मी आने को है और ऐसे में कटने को तैयार खड़खड़ बारिश आ गई। ओले भी गिर गए। किसान तड़प रहा है। फसलें फ़ील्ड में औंधी किसानों का मुँह ताक रही हैं। ख़ैर, ऐसा होता रहता है लेकिन केरल के हाल से अलग हैं। और बुरा भी। अभी तक बारिश से लोग परेशान थे।

जानकार के अनुसार पिछले दो वर्षों में उत्तरी भारत में शुरुआती गर्मी ने तेजी से परिणामी के उत्पादन को एक स्तर तक कम कर दिया। इस तरह की घटनाओं से खाद्य पदार्थों की कमी हो सकती है और सेल की संभावना बढ़ सकती है, जिसका उद्योग और खाद्य सुरक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है।
बारिश के खत्म होने पर ज़्यादा दिन नहीं थे कि ग़ज़ब की गर्मी आ गई। गर्मी भी ऐसी कि लू के थपेड़े पड़ रहे हैं। सरकार द्वारा हिट्स के अलर्ट जारी किए जा रहे हैं। दरअसल अब गर्मी जैसी एक नई तकनीक आई है। इसका चमकीला मौसम विभाग यह पता लगाता है कि जितनी ऊष्मा डिग्री बताई जा रही है, वास्तव में वह कितनी डिग्री का दे रहा है।
इसके अनुसार केरल में तापमान तो 32 डिग्री है लेकिन वो एहसास कर रहा है 54 डिग्री का। मतलब भर गर्मी में जैसलमेर तापता है, उच्च अभी से कैरल ताप रहा है। …और काटो पेड़े, नदियाँ – नालों को पूर दो, मिट्टी और चेहरे से। उन कॉलोनियों ने दो और करोड़ों-अरबों कमाओ।
कौन रोक रहा है? लेकिन आने वाली पीढ़ी जब कोई सवाल करे तो अपने लिप सी लेना। क्योंकि हमारे पास कोई जवाब तो नहीं होगा। एक जमाना था जब हममें ज्यादा लालच नहीं था। चाँद उठा था तो रौशनी अँधेरी- सी हवा, शाख़- शाख़ में नन्हे के बारे में दुनिया थी। पंजीकरण के दाने-दाने में दूध भरता है।

नीले-काले आकाश के तारे जब चमकते थे, तो झिलमिलाते थे सारे दरिया समंदरों की ओर। अंधे आँखों में भी रौशनी लौटती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। अब तो हवाएँ भी गरम तलवारों के झोंके लेकर आती हैं। अब इन हवा के हाथ भी गुस्ताख़ हो जाते हैं। काटे हैं नन्हें- नन्हे सपनो को। नोंच खाते हैं आँचल। सपने देखने से जुड़ें रहें।
अचल रह-रह कर थरथराते हैं और नंगी, बूढ़ी, गंजी जमीं काँपती है। दोपहर के आसमाँ पर परिंदा, आग और पानी का आतंक अकेला उड़ता रहता है। अपने नामांकित और बीमार बच्चों की करोड़ों माँओं की खातिर। लेकिन क्या किया? जो सटीक वो बात हुई। गुम हुए लम्हों की ख़ातिर तड़पना, कई सारी बातें से हुईं। अपूर्ण, नामुकम्मिलन प्रयासों का दर्द, कब तक जीतेंगे। इस तरह जीना कुछ टुकड़े-टुकड़े-सा लगता है।